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Tuesday, April 5, 2011

हम-तुम कहीं जंगल से गुजरें, और...

जनवरी के शुरुआती दिन थे, और चारों तरफ घना जंगल था, पहाड थे.. लेकिन फिर भी खिली धूप में रणथंभौर दुर्ग की सैर पसीने छुटाने के लिए काफी थी। ढलती दुपहरिया में, ख्यालों में डूबते-उतराते फोर्ट से वापसी का सफर जीप से तय हो रहा था। पुरानी महिंद्रा के पीछे वाली सीट पर मैं गाइड के साथ बैठा था। गाइड फोर्ट का था, वह जाते हुए टाइगर रिजर्व के पहले ही नाके पर हमारे साथ हो लिया था, और वापस भी वहीं उतरने वाला था। लेकिन मेरे जेहन में सिर्फ बाघ घूम रहे थे.. क्या फोर्ट की जगह एक बार सफारी और कर लेनी चाहिए थी? आखिर अगली सुबह तो वापसी ही थी। आप अगर वाकई वन्य व प्रकृति प्रेमी हों तो किसी टाइगर रिजर्व में जाने के बाद यह तय करना बेहद मुश्किल हो जाता है कि आखिर पार्क में सफारी के लिए कितनी बार जाएं। बाघ न दिखा हो तब तो आपके कदम बार-बार आपको मृग-मरीचिका की तलाश में जंगल लेकर जाएंगे ही, लेकिन दिख जाए तो उसे फिर देखने का लालच भी कम नहीं होता। मन यही सोचता रहता है, एक बार और.. पता नहीं फिर कब देखने को मिले। हमारे जंगलों की हालत और शिकारियों के हौसलों को देखते हुए, पता नहीं यह अद्भुत जानवर अगली पीढियों को देखने को मिलेगा भी या नहीं। मुझे ख्याल था कि सरिस्का मैं दो बार जाकर खाली हाथ लौट चुका था। फिर बाघ के जंगल में पहले दीदार पन्ना में हुए, जी-भरकर हुए, बेहद करीब से हुए.. लेकिन दो साल बाद पता चला कि वह पन्ना के संभवतया आखिरी बाघों में से था, जो हमने देखा। रणथंभौर में भी यह कसक हर वक्त हावी थी। इसीलिए पिछले दिन की दूसरी सफारी में डूबती शाम तले भौंहों के ऊपर तारे जैसी छाप वाले बाघ टी-20 को राजबाग के पास लगभग बीस मिनट तक भरपूर देख लेने के बाद भी मन भरा नहीं था। फिर रणथंभौर का पर्याय बन चुकी मछली बाघिन को देखने की हसरत भी तो कहां पूरी हुई थी। इसीलिए सवेरे आखिरी वक्त तक दिल इसी दुविधा में था कि रणथंभौर के किले की सैर की जाए या एक और सफारी। दिमाग ने दिल को किला देखने के लिए राजी कर लिया। किले में तीन घंटे इतिहास व आस्था से रू-ब-रू होने के बाद भी वापसी के सफर में गाइड से सारी बातें बस जंगल की ही हो रही थी। रणथंभौर में बाघ व मगरमच्छ के संघर्ष के किस्सों ने भी मुझे खासा मुग्ध कर रखा था। खास तौर पर मछली के बारे में सुना था कि कैसे उसने तीन-तीन बार विशालकाय मगरमच्छों को पटखनी दे रखी थी। पार्क में इतने मगरमच्छ होना भी कम कौतुहल की बात नहीं थी मेरे लिए। इसीलिए जब हमारी जीप किले से सवाई माधोपुर नाके के बीच भैरों घाटी के नीचे पानी की छोटी सी धार के करीब थी, तो मैंने गाइड से पूछा कि क्या इस पानी में भी मगरमच्छ आ जाते हैं। गाइड के मुंह से दो बातें एक साथ निकली, मेरे सवाल के जवाब में- नहीं, और उसके तुरंत साथ- अरे टाइगर। आखिर के दो शब्द सुनते ही मानो मेरे रोंगटे खडे हो गए। पलक झपकते ही एक बांका, खूबसूरत, जवान बाघ घाटी से नीचे उतरकर सडक पर ठीक हमारी जीप के पीछे सडक पर दिखाई दिया। वह हमारी विपरीत दिशा में यानी किले की तरफ जा रहा था। वह रास्ता यूं तो रणथंभौर पार्क का ही हिस्सा था, लेकिन रिजर्व के उस हिस्से से बाहर था, जहां सफारी होती है। यह रास्ता किले की ओर जाने का मुख्य मार्ग था जिसका इस्तेमाल रोज सैकडों लोग किले और उसके भीतर त्रिनेत्र गणेश के प्रसिद्ध मंदिर में जाने के लिए करते हैं। ऐसे चलते रास्ते पर जब हमें बाध दिखा तो दूर-दूर तक उस बाघ और हमारी जीप के सिवाय उस रास्ते पर कोई नहीं था। दो दिन से उस रास्ते (सफारी गेट पहुंचने का रास्ता भी वही है) पर आते-जाते सुन चुका था कि किले के रास्ते में भी कई बार बाघ दिख जाते हैं। लेकिन बाघ हमें दिखेगा- इतनी नीरवता में और इतने नजदीक से, इसका गुमान न था। अगले तीस मिनट हमारे लिए एक यादगार रोमांच के थे- बाघ के कदमों के साथ-साथ रिवर्स गियर में चलती जीप, कैमरे के क्लिक बटन को लगातार दबाती उंगली और रास्ते से गुजरते हर व्यक्ति को बाघ की मौजूदगी के बारे में बताते अथक इशारे। बाघ उलटी दिशा में जा रहा था, लेकिन उसने हर थोडी देर में पलटकर हमें देख मेरे कैमरे को निराश न होने दिया। थोडी ही देर में वहां किले व सफारी से लौटते लोगों का हुजूम जमा हो गया था। बाघ के फिर रास्ता छोड ऊपर घाटी में ओझल हो जाने के बाद ही हम वहां से विदा हुआ। सवाई माधोपुर का बाकी बचा सफर एक बदली हुई फिजा में पूरा हुआ। दिल में मानो किसी जीत के बाद की तसल्ली का सा भाव था। सफारी पर फिर न जा पाने और यहां तक कि मछली को न देख पाने का अफसोस भी जाता रहा। ऐसे बस यूं ही बाघ के सरे-राह मिल जाने का रोमांच देर तक बना रहा।
रोमांच पिछले दिन भी सफारी में टी-20 से मुलाकात में बहुत रहा। सवेरे जंगल की खाक छानने के बाद शाम को भी खाली हाथ लौैटने का डर और फिर अचानक राजबाग के पास टाइगर दिखने की खबर और जहां हम थे, वहां से टाइगर तक पहुंचने के लिए सफारी के कच्चे, ऊबड-खाबड, पहाडी रास्तों और मगरमच्छ से भरे तालाबों के किनारों पर जीप की अद्भुत दौड.. जिसकी अपने अनुभव में तुलना मैं सिर्फ मलेशिया के सेपांग फॉमूर्ला वन ट्रैक पर रेसिंग कार में दो सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से की गई सवारी से कर सकता हूं। हम जब राजबाग के किनारे टाइगर के पास पहुंचे तो पहले ही कम से कम दस सफारी जीपों में सवार साठ-सत्तर सैलानी उसे घेरे थे। लेकिन उस मजमे से बेपरवाह (बेखबर नहीं) बाघ अपने में मस्त था। वह मिट्टी चाटता या शंका निवारण करता तो कैमरे क्लिक होने लगते। वह बढता था तो सफारी जीपें उसके साथ कदमताल करती बढने लगती थीं, मानो किसी राजा की सवारी निकल रही हो। लेकिन उस बेफिक्र की अपनी राह और अपनी मंजिल थी। अपनी तरह का एक रोमांच बिना बाघ देखे सवेरे की सफारी में भी मिल गया था जब ट्री-पाई नाम का पक्षी (सबसे ऊपर फोटो में) हमारी हथेलियों पर बैठकर हमारे हाथों से खाना ले रहा था। बेहद ताकतवर व नुकीले पंजों, तीखी चोंच वाले इस परिंदे की हिम्मत देखकर हम हैरान थे। पता चला वह बाघ के दांतों में फंसा मांस निकालकर खा लेती है। तब हमें अहसास हुआ कि वह इंसानों से इतनी बेखौफ क्यों है। दूसरी शाम जब सवाई माधोपुर लौटे तो पता चला कि भैरों घाटी में मिला टाइगर टी-5 बडा खूंखार था और एक-दो लकडहारों-चरवाहों को निशाना बना चुका था। दिल में रोमांच अब नई हिलोरें ले रहा था।



बाघ देखने की चाह
कुछ समय पहले तक रणथंभौर को भारत में बाघों की संख्या के मामले में अव्वल माना जाता था। ताजा हकीकत इस साल हो रहे टाइगर सेंसस के बाद पता चलेगी। राजस्थान की गर्मी में बाघ देखने के लिए तीन घंटे की सफारी कष्टदायक हो सकती है। इसलिए बहुत लोग सर्दियों में जाना पसंद करते हैं, जब धूप सुहानी लगे। लेकिन सर्दियों में बाघों के दिखने की संभावना कम हो जाती है। गर्मियों में आम तौर पर पानी के स्त्रोत के किनारे बाघ व अन्य जंगली जानवर प्यास बुझाते या बदन को ठंडक देते ज्यादा सहजता के साथ देखे जा सकते हैं। रणथंभौर में सफारी का समय सवेरे 7.30 बजे से 10.30 बजे तक और दोपहर में 2.30 बजे से 5.30 बजे तक है। इन समय के अलावा पार्क में घुसना या रुकना मना है। सफारी छह सीटर खुली जीप या बीस सीटर खुले कैंटर में की जा सकती है। जीप में प्रति व्यक्ति पांच सौ रुपये किराया है। बडा समूह हो तो पूरी जीप या कैंटर लिया जा सकता है। मानसून के समय टाइगर रिजर्व बंद रहता है। इतने टाइगर हैं तो पार्क में भांति-भांति के हिरण और सांभर तो होंगे ही। रणथंभौर के चार बडे तालाब मगरमच्छों से भरे पडे हैं। इतना पानी है तो सर्दियों में कई प्रवासी पक्षी भी यहां जुटते हैं। इसके अलावा मॉनिटर लिजार्ड (गोह) व कई तरह के अजगर यहां आपको रोमांचित कर सकते हैं।
 
प्रकृति, इतिहास व आस्था
टाइगर रिजर्व के ठीक बीचों-बीच बना है रणथंभौर का किला। इसकी भौगोलिक संरचना ऐसी है कि इसपर सीधा हमला करना और विजय पाना बडी टेढी खीर रहा। इसीलिए इसे देश के सबसे मजबूत किलों में से एक माना जाता है। किले के प्राचीर को देखकर इसका अहसास आज भी किया जा सकता है। पांचवी सदी में महाराजा जयंत के बनाए इस किले को इसका सबसे प्रसिद्ध राजा मिला हम्मीर देव (1282-1301 ई.) के रूप में। ये वही राजा है जिनके नाम से हम्मीर हठ की कहावत चलती है। लेकिन छल से अलीउद्दीन खिलजी ने उस पर दिल्ली के सुल्तानों का आधिपत्य कायम किया। कुछ समय के लिए राणा सांगा ने यहां शासन किया, लेकिन फिर यह मुगलों के अधीन चला गया। किले के भीतर उस दौर के भग्नावशेष अभी देखे जा सकते हैं। लेकिन इस किले की एक और प्रसिद्धि त्रिनेत्र गणेश के प्रसिद्ध मंदिर के लिए भी है। यह मंदिर भी राजा हम्मीर के समय का ही बताया जाता है। इस मंदिर की मान्यता इतनी ज्यादा है कि आज भी लोग अपने परिवार में विवाह का पहला निमंत्रण त्रिनेत्र गणेश जी के नाम यहां भेजते हैं और भगवान को हर निमंत्रण पढकर सुनाया जाता है। यहां आपका स्वागत सैकडों लंगूर करेंगे। कैसे पहुंचे: रणथंभौर टाइगर रिजर्व राजस्थान के सवाईमाधोपुर शहर से सटा है। लेकिन पार्क का मुख्य प्रवेश द्वार शहर से लगभग 11 किलोमीटर दूर है। सवाईमाधोपुर दिल्ली-मुंबई मुख्य रेलमार्ग पर दिल्ली से ट्रेन से महज चार-पांच घंटे के सफर पर स्थित है। लगभग इतना ही समय जयपुर से सवाईमाधोपुर पहुंचने में भी लगता है। दिल्ली से मथुरा-भरतपुर होते हुए सीधे सडक मार्ग से भी वहां पहुंचा जा सकता है। कहां ठहरें: देश के सबसे खूबसूरत टाइगर रिजर्व कहे जाने वाले रणथंभौर की ख्याति अपने बाघों के लिए दुनियाभर में है। बडी संख्या में विदेशी सैलानी भी यहां पहुंचते हैं। लिहाजा देश के ज्यादातर बडे समूहों के आलीशान रिजॉर्ट व होटल शहर से टाइगर रिजर्व के रास्ते में दोनों तरफ पसरे पडे हैं। लेकिन उससे कहीं ज्यादा संख्या में छोटे व मझोले किस्म के होटल हैं। हर वर्ग व पसंद के सैलानियों के लिए पूरी गुंजाइश क्योंकि रणथंभौर टाइगर रिजर्व सवाईमाधोपुर की जिंदगी है। कब जाएं: मौसम के लिहाज से सर्दियों में और ज्यादा आसानी से बाघ देखने के लिए गर्मियों में। कपडे उत्तर भारत के मौसम के अनुरूप। लेकिन जंगल जाएं तो हल्के रंग पहने जिनमें प्राकृतिक छटा झलकती हो। याद रखें, जानवरों को भडकीले रंग पसंद नहीं आते।